- Author: Divya Prakash Dubey
- Paperback: 150 pages
- Publisher: Hind Yugm; First edition (1 January 2019)
- Language: Hindi
BLURB as on Goodreads
चित्रा और सुदीप सच और सपने के बीच की छोटी-सी खाली जगह में 10 अक्टूबर 2010 को मिले और अगले 10 साल हर 10 अक्टूबर को मिलते रहे। एक साल में एक बार, बस। अक्टूबर जंक्शन के ‘दस दिन’ 10/अक्टूबर/ 2010 से लेकर 10/अक्टूबर/2020 तक दस साल में फैले हुए हैं।
एक तरफ सुदीप है जिसने क्लास 12th के बाद पढ़ाई और घर दोनों छोड़ दिया था और मिलियनेयर बन गया। वहीं दूसरी तरफ चित्रा है, जो अपनी लिखी किताबों की पॉपुलैरिटी की बदौलत आजकल हर लिटरेचर फेस्टिवल की शान है। बड़े-से-बड़े कॉलेज और बड़ी-से-बड़ी पार्टी में उसके आने से ही रौनक होती है। हर रविवार उसका लेख अखबार में छपता है। उसके आर्टिकल पर सोशल मीडिया में तब तक बहस होती रहती है जब तक कि उसका अगला आर्टिकल नहीं छप जाता।
हमारी दो जिंदगियाँ होती हैं। एक जो हम हर दिन जीते हैं। दूसरी जो हम हर दिन जीना चाहते हैं, अक्टूबर जंक्शन उस दूसरी ज़िंदगी की कहानी है। ‘अक्टूबर जंक्शन’ चित्रा और सुदीप की उसी दूसरी ज़िंदगी की कहानी है।
“बनारस शहर सच और सपने के बीच में कहीं बसता है। यहाँ कोई सच ढूँढने आता है तो कोई सपना भुलाने।”
अक्टूबर में शुरू हुई एक कहानी – एक प्रगतिशील लेखिका और एक सफ़ल उद्यमी की। बनारस के अस्सी घाट पर स्थित पिज़्ज़ेरिया में ये दो लोग क्या मिले, मानो बनारस को एक कहानी मिल गयी। एक नींव रखी गई एक खूबसूरत संबंध की जिसका कभी कोई नाम नहीं गढ़ा गया, न ही नामकरण की कोई विशेष कोशिश हुई। बस जो था, वो शाश्वत प्रेम था, और थी अक्टूबर की 10 तारीख़।
10 बरस में विलीन थी चित्रा और सुदीप की कहानी। अपनी दौड़ती ज़िन्दगियों और हताशा भरे दिनों से छूटते तो एक दूसरे से 10 अक्टूबर को मिलते। कितना अजीब है न, एक दिन मुक़र्रर कर देना किसी के लिए। अपनी ज़िंदगी से वो एक दिन निकालकर किसी और के नाम कर देना बेहद विशिष्ट है। और उससे भी अधिक सुंदर है किसी ऐसे को पा लेना जो तुम्हारा अधूरा हिस्सा हो, जिसके साथ दुनिया भूलकर हँस भी सको और रो भी सको, जिसके साथ ख़ामोशी भी आराम दे।
एक प्रेम के धागे में पिरोई हुई है ‘अक्टूबर जंक्शन’ जिसके आदि और अंत एकदम उत्पाती से हैं और जिन्हें पकड़ना उतना ही मुश्किल। जीवन की कुछ महीन बातों को रेखांकित करती ये किताब प्रेम का नया रूप सामने रखती है। कैसे प्यार को रिश्ते में बांध देने से उसका अस्तित्व कस जाता है और फ़िर आज़ादी कहीं दिखती नहीं। इस किताब के माध्यम से मैं बनारस के निकट हो गयी और रिश्तों को समझने के लिए और परिपक्व। एक नई शैली और एक नए नज़रिये से रूबरू हुई। भाषा सहज एवं सरल है। कहीं भी क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग न होने से कोई भी आसानी से इस किताब से जुड़ सकता है।
हालांकि छपाई में कुछ त्रुटियाँ हैं जिसके कारणवश मेरा यह सुझाव है कि किताब की एक बार पुनः जाँच की जाए।
जिन्हें नई हिंदी लुभाती है, जिन्हें परिपक्व कहानियाँ और लयात्मक लेखन शैली पसंद हो, वे ये किताब अवश्य पढ़ें।
“नदी और ज़िन्दगी दोनों बहती हैं और दोनों सूखती रहती हैं।”
MY RATING: 4/ 5
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