लोकतंत्र अर्थात डेमोक्रेसी भारत देश का मुख्य स्तम्भ माना गया है. हम कहते हैं की देश स्वतंत्र है, यहाँ जनता का, लोक का राज है. परन्तु सत्य इस बात से कोसों दूर है. कहने को भारत लोगों से चलता है, कहने को हमारा सरकारी तंत्र लोगों का प्रतिनिधित्व करता है. परन्तु सच यह है की भारत समस्त संसार के बेहतरीन लोकतांत्रिक देशों में शुमार नहीं हो सकता है. फिलहाल तो नहीं.
21 वीं सदी की सत्ता का नया रास्ता बनाया गया है जिसका नाम है ‘राष्ट्रवाद’। राष्ट्रवाद सत्ता का नया रास्ता है जो सत्ता के पुराने रास्तों की तरह मौत का खेल ही खेल रहा है। लोकतांत्रिक हुक्मरानों के लिए सत्ता ही सब कुछ है और इस सत्ता को पाने के लिए वे कुछ भी कर सकते है। राष्ट्रवाद की आड़ में सत्ता के लालची नेता जनता को मुर्ख बनाते आ रहे हैं. उन्हें फर्क नहीं पड़ता की कितने गरीब भूखों मर रहे है, कितनी स्त्रियों के साथ अत्याचार हो रहे हैं, कितने युवा बेरोज़गार घूम रहे हैं. देशवासियों की लाचारी नेताओं को नहीं कचोटती। इस पुस्तक के माध्यम से लेखक उस सत्ता पर तंज कसते हैं जो खोखली बातें करती है.
राष्ट्रवाद – अंत मानवता का पांच भागों में विभाजित है. हर भाग राजनीति के शास्त्र में सुधार की मांग करता है. हर भाग देश के पतन पर रौशनी डालते हुए सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करता है. भारत में सांप्रदायिक विवाद नयी बात नहीं. पर हाल ही के कुछ वर्षों में यह विवाद विष की पराकाष्ठा में परिवर्तित होता जा रहा है.
और यह सब मात्र भारत देश तक ही नहीं सीमित नहीं अपितु दुनिया के तमाम देशों में यही हाल है. विभाजन के आधार पर शासन करने वाले सत्ता के हुक्मरानों को कुर्सी से हटाने को हम लोगों को ही आगे आना होगा.
लेखक ने काफी समझ से इस पुस्तक को लिखा है जिसमें उनका रोष साफ़ रूप से नज़र आता है. वे सत्ता के चरित्र और शास्त्र पर चिंतित है जो उनके लेखन में दिखाई पड़ता है. हालांकि कहीं कहीं यह पुस्तक निराशा और क्रोध की ओर झुकी समझ आती है. बावजूद इसके, पुस्तक में निहित विचार व लेखन शैली पाठकों को अवश्य प्रवाभित कर पाएगी.
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क्या जब तुलसी रामराज्य को महिमामण्डित करते है तो उस समय वो राष्ट्रवादी नही है।जनता व सरकार राष्ट्र के लिए होता है राष्ट्र इनमे से किसी के लिए नही होता।राष्ट्रहित सामाजिक,आर्थिक न्याय से ऊपर है।
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